या बंदानवाज़!
तारीख, जि़न्दगी का एक ऐसा हिस्सा है जिसके बिना इन्सान अधूरा है और इसे महफ़ूज़ रखना हर औलादे आदम पर फ़र्ज़ है। चाहे वो लिखनेवाला हो या फिर पढ़नेवाला, ये हर किसी की जि़म्मेदारी है कि अपनी तारीख़ (व तहज़ीब) को संभाले और अपनी आने वाली नस्लों तक पहुंचाए। क्योंकि आज के ज़माने में हर ज़र्रे को तारीख़ की ऐन में जांचा जाता है और जिसके पहलु की तारीफ़ साबित न हो उसकी अहमियत कम आंकी जाती है। और हमारी तारीख़ बची है आप जैसे लोगों की वजह से जो सूफ़ीयाना जैसा रिसाला शाया करके अपनी तारीख़ को नयी जि़न्दगी दे रहे हैं।
अल्हमदोलिल्लाह मुझे मसर्रत हुई जनवरी 2015 की सूफ़ीयाना का मैने मुताला किया। जिस तरह आप ने शरीअत़ और तरीक़त, दोनों जो इस्लाम के मज़बूत पहलू हैं, इनको आपने कवर किया है। ये लायक़े सताईश है।
आज के दौर में जहां कुछ फि़रक़े जो सूफ़ीज़्म को समझ नहीं पाते और तसव्वफु़ जिनके पल्ले भी नहीं पड़ता, उनके लिए अच्छा सबक़ है सूफ़ीयाना। आज जहां ख़ानक़ाहें ख़त्म हो रही हैं, आपकी ये मैग़ज़ीन ख़ानक़ाहों का दर्स सीखा रही है और तसव्वफु़ से लोगों को वाकि़फ़ करा रही है।
यहां एक वाकिया याद आ रहा है। जब हज़रत महबूबे इलाही ख्‍वाजा निज़ामुद्दीन औलियाؓ अपनी ख़ानक़ाह में तशरीफ़ फ़रमां थे और आप ज़मीन पर एक गालीन पर तशरीफ़ रखे हुए थे। और हज़रत अमीर खुसरोؓ का वहां से गुज़र हुआ, आपने महबूबे इलाही को देखकर फ़रमाया.
शहनशाहे बे सरीर व बे ताज
शहनशाहे जमां खाक पाए उ मोहताज
यानी ऐ महबूबे इलाही! आपकी बादशाहत का क्या कहना, आपकी बादशाहत ताज की मोहताज नहीं और शहनशाहे वक़्त भी आपके क़दमों की धूल है।
बहरहाल, आप बड़े ही अच्छे मौज़ूआत कवर कर रहे हैं। उम्मीद है कि आगे भी करते रहेंगे। अल्लाह आपकी इस खि़दमत को क़ुबूल फ़रमाए और नेक सिला अ़ता करे।
आमीन बिजाही सय्यदिल अंबिया वल मुरसलीन।